स्मृतियों का जगर-मगर
स्मृतियों का यह जगमग संसार जब जंगलों से गुजरता अपने बसेरे की शक्ल लेता है तो ज़र्रे-ज़र्रे से कहानियाँ बोल पड़ती हैं। वनवासी जीवन की ऐसी ही दुर्लभ और बेमिसाल दास्तानों का घर है- मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय।
आठ बरस पहले 6 जून को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने संस्कृति के इस सदन की देहरी पर मंगल दीप जलाकर यह अनमोल सौगात देश को सौंपी थीं। इसके स्थापत्य सौंदर्य और आदिम आवाज़ों की ख़ामोश पुकारों ने कुछ इस तरह सम्मोहित किया कि हर दिन यह जगह आगंतुकों से गुलज़ार रहने लगी। महामारी का अजीब आलम है जब संग्रहालय के आंगन-गलियारों में लगातार दूसरे साल सन्नाटा पसरा है। यह विपदा सालगिरह के उत्सव को भी लील गयी।
भोपाल की शामला पहाड़ी की सख़्त चट्टानों पर एक सुंदर कविता की तरह उभर आयी इस इमारत में गोंड, बैगा, भील कोरकू और सहरिया जैसी जनजातीय बिरादरियाँ अपने पुरखों, देवताओं, मिथकों, गाथाओं और मनौतियों की विरासत थामें परंपरा का गौरव गा रही है। श्रद्धा, आस्था और समर्पण के बीच सांसें भरती एक सामुदायिक इच्छाशक्ति है जो अपने परिवेश और प्रकृति के प्रति वफ़ादारी का सबक देती है। जन्म से लेकर इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कहने तक ये सबक और सौगंध पूरे होते हैं।
हमारा शहरी मन इसे मानें, न मानें लेकिन जीवन की मृगतृष्णा के असल सच को सदियों पहले भाँप चुका जंगली समुदाय आदिम सुख के अमृत को पाकर अपनी धरोहर का सच्चा पहरेदार रहा है। इसी रंग-रौशनी से उतरकर कुछ सवाल आधुनिकता की चौखट पर खड़े होते हैं कि अपनी धरती, अपने पर्यावरण-परिवेश और जीवन के प्रति सच्ची वफ़ादारी हमारे समय में कहाँ, कितनी बाकी है!?
साधक-ऋषियों ने जिस अद्वैत की अवधारणा में परमतत्व को खोजने का उपदेश दिया, जंगलों में रहने वाले समुदाय उसके जीवंत साक्ष्य बन गये। यहाँ हर गतिविधि, हर क्रियाकलाप और अनुष्ठान पंच तत्वों के उजास से भरे हैं कि हमारा होना भूमि, पानी, आसमान, आग और हवा होना है।
यहाँ कुछ भी बेमानी नहीं है। मिट्टी का छोटा सा क़तरा और घांस का तिनका भी अपने मक़सद के साथ ज़ीवन का अभिन्न हिस्सा है। आंगन-देहरी, दीवार, पर जो छिटके रंग हैं और जो छटाएँ बिखरी हैं, प्रकृति ही उनका स्रोत है।
आस्था का हर आयाम यहाँ मिथकों से जुड़ा है। ये मिथक पूर्वजों की कथा कहते हैं जो एक सनातन को आत्मसात करने और उसे विरासत की तरह आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की गवाही देते हैं... निरवर आयी सी यह सुंदर दुनियां किसी मठ या गुरूकुल से पाए उपदेश की प्रेरणा नहीं है। प्रकृति के पन्नों पर लिखे सुनहरे पाठ हैं जिसे अहोभाव से जस का तस जीवन में उतारने का मौन स्वीकार है।
यहाँ परंपरा में जीवन अपनी आँखें खोलता है। वो परंपरा जो मनोरोगों से मुक्ति दिलाते गोंडजनों के पागल देव, पशु-प्रेम का संदेश देती माडिया जनों की टंटल देवी, विजय पथ पर ले जाते बस्तर के दशहरा-रथ, अठारह वाद्यों को ईज़ाद करने वाले लिंगों देवता, और सामाजिक जीवन का बेहतर ताना-बाना रचने वाली घोटुल बिरादरी तक सामूहिकता और सौहार्द का पैगाम देती है। स्वस्थ जीवन के लिए उदार होती शीतला माँ का वास भी यहीं है। यहाँ प्रकृति के खुले आंगन में खेलता बचपन, जय-पराजय की किसी होड़ से परे अंततः मैत्री की बेजोड़ मिसाल बन जाता है।
विवाह के सुंदर मंडम में ब्रह्माण्ड की कल्पना कर सकता है। यहाँ बासिन कन्या समूचे जीवन पर आच्छादित हो सकती है। वहाँ बड़ा देव वृक्ष से उतरकर बाने की तान पर स्मृतियों को पुकार सकता हैं। यहाँ नाद की स्वर लहरियाँ किसी वृक्ष पर आसरा ढूँढ लेती है। पुरखे रक्त की धार बनकर धरती पर प्रकट हो सकते हैं। पूर्वजों की शक्तियाँ अश्व के प्रतीकों में इच्छाओं की तरह रह सकती हैं। दीवार पर पिठौरा की आकृतियों में जल-देवता इन्द्र की आहट सुनी जा सकती हैं।
यहाँ जो है, समय में है। आज और अभी के जीवन में है। चलते रहने में है। एक ऐसी गति, जिसकी गंतव्य में नहीं, यात्रा में ही सार्थकता है। उसका सारा पुरूषार्थ, सारी प्रार्थनाएँ इस धरती और प्रकृति के प्रति उसका हार्दिक आभार है।
आदिम स्मृतियों का यह बसेरा एक ऐसे ही सफ़र पर चल निकलने का आमंत्रण है, जहाँ, हम अपनी ही धड़कनों को सुनते हुए अनंत को पुकार सकते हैं। कुदरत की इसी नेमत को निहारती आँखों में जागता रहा है- जीवन का सपना। कुछ सुरमई इच्छाएँ समय की थाप पर थिरकती हैं और उमंगों की उंगली थामकर समय में अपने होने का उत्सव मनाती हैं।
आसमान और धरती के फ़ासले सिमट जाते हैं। सूरज, चाँद, सितारे, नदी-समंदर, जंगल-पर्वत और हवाओं की हमजोली में यहाँ आपसदारी की आहटें अपना ठौर तलाशती हैं। यहाँ जिंदगी की मुंडेर पर रखा एक चिराग़ है, वक्त के हर दौर में जिसकी मुस्कुराती रौशनी इंसानियत का पैगाम देती रही है। इसी उजास से हरा-भरा एक इंसानी ज़ीवन अपनी मौलिकता के छंद रचता है और कुदरत की दी हुई धरोहर पर निहाल हो उठता है!
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