देवलोक

देवलोक

कलाबोध से देवलोक में ले जाने वाले गलियारे में एक कंटीले वृक्ष का रचाव है। काँटे पीड़ा की अनुभूति कराते हैं और पीड़ा को सहने, उससे अविचलित रहने की शक्ति उस देवलोक से प्राप्त होती है, जिसकी ओर यह कंटीला, शूलशोभित गलियारा ले जा रहा है। इस गलियारे को टिमटिमाते तारों और अज्ञात नक्षत्रों से भरे आकाश की तरह भी देखा जा सकता है।

देवलोक की किसी आधुनिक इमारत की दीर्घा में संकल्पना एक टेढ़ी खीर है। फिर वह भी एक ऐसे देवलोक की जिसने प्राय: किसी ठोस देवालय में घुसने तक से परहेज किया है। वह जिसकी धुँधली झलक कभी निर्जन दो राहों के किनारे, तो कभी घोर जंगल के बीच, कभी छोटे से तालाब की पाल पर, कभी खेत की मेड़ पर, तो कभी गाँव की अदृश्य सीमाओं पर एक छोट से चबूतरे, अनगढ़ पत्थर, पेड़ पर फरफराती पताका, कोई डाँड, कोई खाम, त्रिशूल, दीपक या टेराकोटा के चढ़ावे के रूप में दिखती है, जिसमें देवता (आकृति) स्वयं सिरे से नदारद है, उसे किसी दीर्घा में किस उपाय से अवतरित किया जाए?

संकेतों, प्रतीकों की जिस आशुलिपि में इस आदिवासी समुदाय ने अपने देवलोक के वितान को लिखा है, उसकी व्यापकता दिक्-काल की अनंत-असीम की अवधारणा तक फैली है। संभवत: इसीलिये उन्होंने कोई विशाल देवालय बनाने की कोशिश ही नहीं की, क्योंकि वह विशाल से विशाल भवन भी असीम विराटता के आगे धूल का कण ही न होता?

लिहाजा देवलोक-दीर्घा में जंगल, पहाड़, नदी, तालाब की अच्छी-बुरी तमाम आत्माओं का आह्वान किया गया है। वे उपदान, वे प्रतीक जिनका जिक्र ऊपर किया गया, मसलन पेड़ के नीचे चबूतरे, चढ़ावे स्परूप टेराकोटा, त्रिशूल, दीपक, कोरकू समुदाय का मेघनाथ खम्भ, गोंड़ो की सरग नसेनी, भीलों की गल, टटल देव का स्थान, बैगाओं की देव गुड़ी आदि हैं। पुरखे, भटकती प्रेतात्माएँ, भूत-पिशाच, असंख्य रक्षक देवता, कोई बीज को बचा रहा है, कोई भटक गये मवेशी को घर वापस ला रहा है, कोई टूटे हाथ पैर जोड़ देगा, तो कोई गाँव में फैली बीमारी से निजात दिलायेगा। स्पष्ट ही है कि यह देखने से अधिक अनुभूत करने का संसार है और इसे अनुभूत या महसूस करने के लिये उस स्पंदित परिवेश को निर्मित करना अधिक आवश्यक है, जिसमें फिर एक अकिंचन पत्थर, एक चबूतरा, देवता को भेंट चढ़ाई गई आकृतियाँ सब सजीव हो साँस लेने लगेंगी।

जैसा कि पहले भी कहा गया, प्रत्येक दीर्घा में एक से अधिक तल तैयार किये गये हैं, ताकि दर्शक ऊपर नीचे कई कोणों से दीर्घा को देख सके। आप धरती पर अवस्थित हैं अथवा किसी अन्य धरातल से यह नजारा देख रहे हैं, इस अहसास को गड़बड़ाने की भी सचेष्ट कोशिश की गई है। खिड़कियों को लोहे की सामान्य अथवा काँटेदार साँकलों से आंशिक रूप से ढकने के पीछे भी कारण यही है कि अनुभूति का यह वातावरण टूट न जाये, बल्कि देवता की शक्ति की प्रतीक ये साँकले उसे और सघन ही करती हों। प्रकाश, ध्वनि तथा मल्टी मीडिया का इस्तेमाल इस अनुभूति को और सघन करने में सहायक होगा।

राजनीतिक सीमाएँ समय के साथ बदल गई- मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ अलग-अलग राज्य हो गये, किन्तु इनके सांस्कृतिक सातत्य को तोडऩा क्या संभव या उचित होगा। देवलोक तो वैसी ही समस्त सीमाओं का अतिक्रमण करता है, इसलिये इस दीर्घा में बस्तर के लिंगो देव की गुड़ी, माडिय़ा खाम आदि भी प्रदर्शित किये जा रहे हैं।

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